रविवार, 16 मई 2010

नसीब

नसीब
तेरे लिए मैं गुनगुना रहा हूँ
तेरे लिए कविता गा रहा हूँ.

तुझे याद नहीं छोटा था जब तू
तब से तेरे घर चला आ रहा हूँ.

मनाते थे जब लोग घर में दीवाली
तुझसे मैं दीवाला मनवा रहा हूँ.

जलते थे दीये जब घी के घरों में
तेरे घर अँधेरा किए जा रहा हूँ.

मैं ही तेरे हर काम की रुकावट
मैं ही तुझे नीचा दिखला रहा हूँ.

फिर भी कभी तूने कोसा न मुझको
मैं कोशिश पे कोशिश किए जा रहा हूँ.

अब तेरी मेहनत से खुश हो गया हूँ
मैं नसीब हूँ तेरा अब जगमगा रहा हूँ.

तभी तो मैं तेरे लिए गा रहा हूँ
तेरे लिए ही गुनगुना रहा हूँ.
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सार – हमें हर परिस्थिति का मुकाबला ये
सोचकर करना चाहिए कि हर रात के बाद
सुबह होती है। आज दुख है तो कल खुशी
के दिन भी आएँगे।
------------------------------------सुशील जोशी

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